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आजतक आपने सीता के रूपवान, पतिव्रता होने की अनेकों कहानियाँ पढ़ी और सुनी होंगी लेकिन क्या आपको पता है कि सीता इतनी विलक्षण थीं कि श्रीराम के वनवास के समय सीता जी का नाम राज्याभिषेक के लिए प्रस्तावित किया गया था? नहीं ना…

भारतीय ज्ञान शोध संस्थान की निदेशक डॉ कविता अस्थाना ने अपने हाल ही में प्रकाशित लेख में इस बात का खुलासा किया है। इस लेख का आधार वाल्मीकि कृत रामायण है। वाल्मीकि कृत रामायण को आधार बनाने के पीछे डॉ कविता ने तर्क ये दिया है चूंकि वाल्मीकि जी राम के समकालीन थे, उन्होंने ही सीता को अपने आश्रम में आश्रय दिया था, तो उनके द्वारा दी गयी जानकारी सत्य के समीप होगी।

डॉ कविता अस्थाना अपने लेख की शुरुआत अयोध्या काण्ड के उस प्रसंग से करती हैं जब राजा दशरथ अपने मंत्रिमंडल से मंत्रणा करके श्रीराम को युवराज पद पर अभिषेक करने का निर्णय लेते हैं। लेकिन मंथरा कैकयी को भड़काती है और कैकयी राजा दशरथ से राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास और भरत के लिए राज्याभिषेक का वर मांगती हैं।

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जब श्रीराम को दशरथ से सारी बात पता चलती है तो वह पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर वन जाने के लिए तुरंत तैयार हो जाते हैं।

इधर जब सीता को इस बात का पता चलता है तो वो श्री राम से उनके साथ वनवास चलने की हठ करती हैं। वह पत्नी का धर्म समझाते हुए राम से कहती हैं कि पत्नी का कर्तव्य है कि वह पति के भाग्य का अनुसरण करे।

राम उन्हें वन के कष्ट और वहां का भय व दिनचर्या आदि विस्तार से बताते हैं और सीता को वन के कष्टमय जीवन का भय दिखाते हैं परंतु सीता तरह-तरह के तर्क देती हुई राम की सारी बातों को काट देती हैं । वे राम को उलाहना भी देती हैं कि जब जनक को पता चलेगा कि उनका दामाद कायर है, पत्नी की रक्षा करनी पड़ेगी, यह सोचकर वन में साथ नहीं ले गया, तो उनपर क्या बीतेगी? वे साफ़ मना कर देती हैं कि जिस भरत के कारण उनके पति को इतना कष्ट उठाना पड़ रहा है वे उस भरत की आश्रिता होकर नहीं रहना चाहतीं।

डॉ कविता लिखती हैं कि इन सब तर्कों से स्पष्ट होता है कि सीता धर्म समझती थीं और तर्क करने में भी सक्षम थीं। हर संभव तरीके से वह राम को उन्हें अपने साथ वन ले जाने के लिए मना ही लेती हैं।

जब सीता जी वल्कल (सन्यासियों द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र) धारण करती हैं तो महल की अन्य स्त्रियां सीता के वल्कल धारण करने पर विरोध प्रकट करती हैं। गुरु वशिष्ट तो यहाँ तक कह देते हैं कि राम के वन चले जाने पर उनकी पत्नी होने के नाते और सर्वथा योग्य होने पर सीता ही राम के स्थान पर राजसिंहासन पर बैठेंगी। वे ही अब राज्य का पालन करेंगी।

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डॉ कविता अस्थाना इस बात का विश्लेषण करते हुए कहती हैं, ” वल्कल वस्त्र धारण करने पर सीता को उस अवस्था में देखकर कुलगुरु वशिष्ट, कैकयी पर क्रोधित होते हैं और वे कहते हैं कि राम के वन जा इ पर सीता को सिंहासन पर बैठाया जाए। वशिष्ट कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, यदि उनके मस्तिष्क में यह बात आई तो अवश्य ही उन्होंने योग्यता देखी होगी। इससे यह तो तय है कि धर्म को समझने वाली सीता इतनी विलक्षण थीं कि वशिष्ट ने उन्हें शासन करने के भी योग्य समझा। वाल्मीकि रामायण पढ़ने से पूर्व मैंने कभीं भी यह नहीं पढ़ा या सुना जहाँ सीता के यह गुण परिलक्षित हुए हों या ये पता चला हो कि सीता को सिंहासन पर बैठाने का भी कोई प्रस्ताव आया था। यह अलग बात है कि यह प्रस्ताव दो कारणों से नहीं माना जा सकता था। एक, कि सीता ही इसके लिए तैयार नहीं थीं क्योंकि उन्हें सीता के भाग्य का ही अनुसरण करना था और दूसरा कारण कि राम को वन भेजने के साथ-साथ कैकयी ने दूसरा वर यह माँगा था कि भरत को राजगद्दी मिले।”

इस कथन को और तर्कसंगत बनाने के लिए डॉ कविता लिखती हैं कि कैकयी भी बहुत तीव्र बुद्धि वाली स्त्री थी। वह केवल राम को वनवास देकर प्रसन्न नहीं थी, उसने भरत के लिए भी राजगद्दी की मांग रखी थी। संभवतः वे सीता की योग्यता से वाकिफ़ थी इसीलिए उसे डर रहा होगा कि कहीं ऐसा ना हो कि राम की अनुपस्थिति में सीता को सिंहासन पर आसीन कर दिया जाए।

डॉ अस्थाना आगे लिखती हैं कि इस बात से एक बात और निकलकर सामने आती है कि उस वक़्त स्त्रियों का इतना सम्मान था कि वे सिंहासन भी संभाल सकती थीं। लेकिन रामायण के बाद श्री रामचरित पर जितनी भी पुस्तकें लिखी गयीं उनमें से किसी में भी इस बात का ज़िक्र तक नहीं है। संभवतः पुरुषवादी समाज ने यह बात हटा दी।

                                                                                                                      Dr Kavita Asthana

डॉ कविता अस्थाना भारतीय ज्ञान शोध संस्थान की निदेशक और पावन चिंतन धारा आश्रम की सचिव हैं।