Winter Session Of Parliament, PM Modi, Sumitra Mahajan, Mallikarjun Khadge, Rahul Gandhi, Rajya Sabha, JDU Leader SHarad Yadav

नई दिल्ली, समलैंगिक अधिकारों के पक्षधर रहे लोगों के लिए लिए सोमवार को सुप्रीम कोर्ट से एक  राहत भरी खबर आई है। सुप्रीम कोर्ट दो वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली धारा 377 पर फिर विचार करेगा। कोर्ट ने मामले को महत्वपूर्ण मानते हुए संविधान पीठ को विचार को लिए भेजा।

कोर्ट ने धारा 377 को रद करने की मांग वाली याचिका मे उठाए मुद्दे को महत्वपूर्ण मानते हुए तीन जजो की पीठ ने मामला विचार के लिए बड़ी पीठ के पास भेजा है। अब चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली तीन जजों की संविधान पीठ धारा 377 की संवैधानिक वैधता पर सुनवाई करेगी। शीर्ष अदालत ने केंद्र को नोटिस भेजकर एलजीबीटी समुदाय के पांच सदस्‍यों की याचिका पर जवाब तलब किया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि अपनी सेक्शुअल पहचान के कारण उन्हें भय के माहौल में जीना पर रहा है।

अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने कहा सुप्रीम कोर्ट के समीक्षा वाले निर्णय पर कहा, ‘कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करती है। हर किसी को अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का हक है।’

वहीं एलजीबीटी कार्यकर्ता अक्कई ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए कहा,  ‘हम इसका स्वागत करते हैं। हमें अभी भी भारतीय न्याय व्यवस्था पर भरोसा है। हम 21वीं सदी में रह रहे हैं। सभी राजनेताओं और राजनैतिक पार्टियों को इस पर अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए और निजी संबंधों का समर्थन करना चाहिए।’

दरअसल दिल्ली हाईकोर्ट ने नाज फाउंडेशन के मामले में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में शामिल मानने की आइपीसी की धारा 377 के उस अंश को रद कर दिया था जिसमें दो बालिगों के बीच एकांत में बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध माना जाता था। लेकिन हाईकोर्ट के बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट आया तो सुप्रीम कोर्ट की दो न्यायाधीशों की पीठ ने धारा 377 को वैध ठहराते हुए हाईकोर्ट का आदेश रद कर दिया था।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने  दो न्यायाधीशों के फैसले पर जताई थी असहमति 

अगस्त 2017 में निजता के फैसले में जस्टिस चंद्रचूड़ ने धारा 377 को वैध ठहराने के दो न्यायाधीशो के फैसले से असहमति जताते हुए कहा था कि उस फैसले में संविधान के अनुच्छेद 21 में दिये गए निजता के संवैधानिक अधिकार को नकारने आधार सही नहीं था। सिर्फ इस आधार पर तर्क नहीं नकारा जा सकता कि देश की जनसंख्या का बहुत छोटा सा भाग ही समलैंगिक हैं जैसा की कोर्ट के फैसले में कहा गया।

कोर्ट ने कहा था कि किसी भी अधिकार को कम लोगों के प्रयोग करने के आधार पर नहीं नकारा जा सकता। सेक्सुअल ओरिन्टेशन के आधार पर किसी के भी साथ भेदभाव बहुत ही आपत्तिजनक और गरिमा के खिलाफ है। निजता और सैक्सुअल पसंद की रक्षा संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार के केंद्र में है। इसका संरक्षण होना चाहिए।