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बात उन दिनों की है, जब भारत में स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था और भारत सामाजिक बुराइयों में छुआछूत से जूझ रहा था। उस समय देश के प्रमुख मंदिरों में कुछ विशेष जाति के लोगों का प्रवेश पूर्णतः प्रतिबंधित था।

हमारे देश में केरल राज्य का जनपद त्रिशुर दक्षिण भारत की एक प्रमुख धार्मिक नगरी है। यहीं एक प्रतिष्ठित मंदिर है श्री गुरूवायूर मंदिर, जिसमें भगवान कृष्ण के बालरूप के दर्शन कराती भगवान गुरूवायुरप्पन की मूर्ति स्थापित है। इस मंदिर के पुजारी किसी भी गैर ब्राम्‍हण व्यक्ति को मंदिर में प्रवेश नहीं करने देते थे। इस भेदभावपूर्ण रवैये के कारण स्थानीय लोगों में आक्रोश था। मगर उनका नेतृत्व संभालने वाला कोई नहीं था।

केरल के गांधी समर्थक श्री केलप्पन ने महात्मा गांधी की आज्ञा से इस प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई और इसके लिये सन् 1933 ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ किया गया। मंदिर के ट्रस्टियों को इस बात की ताकीद की गई कि नए वर्ष का प्रथम दिवस यानी 1 जनवरी 1934 को अंतिम निश्चय दिवस के रूप में मनाया जाएगा और जब यह नहीं मनाया जा सका, तो महात्मा गांधी यानी बापू और केलप्पन द्वारा आंदोलनकारियों के पक्ष में आमरण अनशन किया जा सकता था। महात्मा गांधी का यह प्रयोग अत्यंत संतोषजनक तथा शिक्षाप्रद रहा। उनके द्वारा कही गई अनशन की बात का उत्साहजनक असर हुआ और गुरुवायुर मंदिर के ट्रस्टियों की ओर से बैठक बुलाकर मंदिर के उपासकों की राय भी प्राप्त की गई। बैठक मे 77 प्रतिशत उपासकों द्वारा दिये गये बहुमत के आधार पर मंदिर में हरिजनों के प्रवेश को स्वीकृति दे दी गई है और इस प्रकार 1 जनवरी 1934 से केरल के श्री गुरूवायूर मंदिर में किए गये निश्चय दिवस की सफलता के रूप में गैर ब्राह्मणों के प्रवेश को सैद्वांतिक स्वीकृति मिल गई।