जलियांवाला बाग़ कांड का बदला लेने और इस क्रूर नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार में से एक जनरल माइकल ओ डायर को गोलियों से छलनी करने वाले आज़ादी के वीर सपूतों में से एक उधम सिंह को आज के ही दिन 31 जुलाई 1940 को पेटेनवूना जेल में फांसी दी गयी थी।

1899 में जब देश में प्रथम स्वंत्रता संग्राम के असफल होने की मायूसी थी और देश में आज़ादी की चिंगारी रह -रह कर सुलग रही थी तब 26 दिसंबर 1899 को पंजाब प्रान्त के संगरूर जिले के छोटे से सुनाम गाँव में शेर सिंह नाम की मशाल ने जन्म लिया जो आगे चल कर वीर क्रन्तिकारी उधम सिंह के नाम से जाना गया।
उधम सिंह का बचपन बड़े दर्द से होकर गुजरा था 1901 में माता के देहांत के बाद ही 1904 में इनके पिता सरदार टहल सिंह जो उप्पली गाँव में रेलवे क्रॉसिंग में चौकीदार थे, का भी निधन हो गया था। महज 5 साल की उम्र में सर से माता-पिता का साया उठ जाने के बाद इनकी ज़िन्दगी में अँधेरा छा गया था एक तो माँ बाप नहीं और दूसरा घर में खाने को एक दाना नहीं। अपना भूखा पेट भरने को इन्होने अपने भाई मुक्ता सिंह के साथ एक अनाथालय में शरण ली पर उससे बड़ी मुसीबत तब आयी जब 1917 में इनके बड़े भाई मुक्ता सिंह का भी निधन हो गया और ये सच में अनाथ हो गए थे।

दुखों का पहाड़ टूट जाने पर भी इस वीर सपूत ने खुद को संभाला और मजबूत किया। ये वो दौर था जब एक के बाद एक आंदोलन असफल हो रहे थे और जो सफल भी हो रहे थे उनका विस्तार अधिक नहीं हो पा रहा था। हर एक देशवासी अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद होने के लिए और देश के लिए कुर्बान होने के लिए तड़प रहा था।

आज़ादी की इस क्रान्ति को भड़काने और उस आग से पूरे अंग्रेजी हुकूमत को ख़ाक करने का प्रण लिए 1919 में उधम सिंह ने अनाथालय छोड़कर क्रांतिकारियों का दामन थाम लिया।

10 अप्रैल 1919 को रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में दो क्रांतिकारियों सैफुद्दीन किचलु और सत्यपाल सिंह को गिरफ्तार किया गया था जिसकी वजह से देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गुस्से और नफरत का सैलाब उठा था। इन दोनों क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को पंजाब में अमृतसर जिले में स्थित जलियांवाला बाग़ में भारतीय कांग्रेस के नेतृत्व में एक जनसभा का आयोजन किया गया जहां पर पुरुष महिलाएं और बच्चे मिलकर लगभग 20000 से भी ज़्यादा लोग एकत्र हुए थे।  वहां भारतीय नेता और देशवासी सिर्फ शान्ति से अपना विरोध प्रदर्शन करने के लिए ही इकट्ठा हुए थे पर इतने सारे जनसैलाब को अपने विरोध में देखकर अंग्रेज सरकार बौखला गयी और उससे अपनी सत्ता के प्रति खिलाफत नागवार गुजरी। तब इस क्रान्ति की आग को बुझाने के लिए पंजाब के जनरल माइकल ओ डायर और रेजीनल्ड डायर की अगुवाई में अंग्रेजी सेना ने निहत्ते देशवासियों पर गोलियाँ बरसा दीं जिसकी वजह से उस बाग़ में हज़ारों लोग मारे गए।

जनरल डायर ने बिना किसी चेतावनी नरसंहार को अंजाम दिया था जिसके लिए उसने पहले से ही बाग़ के सारे फाटक बंद करवा दिए और फिर फाइयरिंग का आदेश दिया। जिसकी वजह से वहां पर उपस्थित लोगों को जान बचाने का अवसर तक नहीं प्राप्त हुआ और उनमें से कुछ लोगों ने तो कुँए में कूदकर अपनी जान बचाने की नाकाम कोशिश की।
उधम सिंह जो उस जनसभा में अपने अनाथालय की तरफ से सबको पानी पिलाने का काम कर रहे थे ,मात्र 20 साल की उम्र में अपने सामने बच्चों और महिलाओं की निर्मम हत्या देखकर विचलित हो गए थे और उनके दिल में प्रतिशोध का ज्वालामुखी फट गया था। उस बाग़ की मिट्टी को अपने माथे से लगाकर उधम सिंह ने जनरल डायर और उसके साथी माइकल ओ डायर की हत्या करने की कसम खाई।

जालियांवाला बाग़ कांड का बदला लेने के इरादे से ही उधम सिंह इंग्लैंड चले गए पर देश में कुछ विपरीत परिस्थितयां आने के कारण भगत सिंह ने इन्हें वापस बुला लिया। देश में जगह-जगह आंदोलन छिड़े हुए थे ,अंग्रेजी सरकार को दोहरे झटके लग रहे थे। तिलमिलाई अंग्रेजी सरकार ने देश में सारे क्रांतिकारियों को जेल में बंद करना शुरू कर दिया ,जिसकी वजह से उधम सिंह को भी अंग्रेजी सरकार ने शस्त्र अधिनियम के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया और इन्हें 4 साल की सजा सुनाई। पर इस सज़ा के बाद भी उधम सिंह अपनी कसम नहीं भूले थे बल्कि इस सजा के बाद उनके इरादे और अधिक मज़बूत हो गए थे।

जेल से छूटने के बाद ही उधम सिंह सन् 1934 को वापस इंग्लैंड पहुँच गए थे पर वहां जाने के बाद ही उन्हें पता चला कि उस हत्याकांड के आरोपियों में से एक जनरल डायर की बीमारी की वजह से मृत्यु हो गयी पर उस कांड के दो अन्य मुख्य आरोपी माइकल ओ डायर और लॉर्ड जेटलैंड अभी भी ज़िंदा हैं। इसलिए उधम सिंह ने अपना पूरा ध्यान उन दोनों की हत्याओं पर लगा दिया और वहीं पर एल्डर कमर्शिअल स्ट्रीट रोड पर रहने लगे और उन्होंने कुछ क्रांतिकारियों की मदद से एक कार और 6 गोलियों वाली बंदूक भी खरीदी।

13 मार्च 1940 को इतने लम्बे इंतज़ार के बाद आखिर वो पल तब आया जब ये सूचना मिली कि जालियांवाला बाग़ कांड के दोनों आरोपी एक साथ ही एक सभा में आने वाले हैं। उधम सिंह पहले से ही उस सभा में जाकर बैठ गए और उन दोनों के आने का इंतज़ार किया ,जनरल माइकल ने वहां अपने सम्बोधन में भारत के खिलाफ बहुत आग उगली पर जैसे ही उसने अपनी बात खत्म की वैसे ही क्रांतिकारी उधम सिंह ने उस पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसा दीं जैसे कि डायर ने जलियांवाला बाग़ में बरसाई थीं। पर इस भगदड़ में लार्ड जेटलैंड भागने में सफल हो गया। डायर को गोलियों से भूनने के बाद ना ही वहां से भागे और ना ही वहां किसी अन्य महिला या पुरुष पर हमला किया। शहीद भगत सिंह की तरह ही इस क्रांतिकारी उधम सिंह ने भी आत्मसमर्पण कर दिया था क्योंकि उधम सिंह की कसम आज पूरी हो गयी थी ,उन हज़ारों लोगों की आत्मा को शान्ति मिल गयी थी जो बाग़ में मारे गए थे।

उधम सिंह के इस कारनामे की तारीफ़ देश में चारों तरफ होने लगी थी खुद पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने उधम सिंह के इस साहसिक कदम की प्रशंसा की थी। उधम सिंह के इस कदम के बाद देश में आज़ादी पाने की लहर दौड़ गयी जो आगे चलकर अंग्रेजों के लिए सुनामी में बदल गयी ,जिसमें 15 अगस्त 1947 तक पूरी अंग्रेजी हुकूमत समा गयी।

उधम सिंह को उनकी वीरता का इनाम मिला जब देश में इन्हें शहीद -ए -आज़म की उपाधि से नवाज़ा गया। अदालत में जब इनका केस चला तब इन्होंनेअपनी सफाई में सिर्फ इतना कहा कि ”मैं 21 वर्षों से प्रतिशोध की आग में जल रहा था ,और डायर और जेटलैंड मेरे देश की आत्मा को कुचलना चाहते थे ,इसका विरोध करना मेरा प्रथम कर्तव्य था ,उन दोनों को मारने पर मुझे कोई पछतावा नहीं बल्कि गर्व है।” देश के इस क्रांतिकारी वीर ने 31 जुलाई 1940 को हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया। आज हमारे लेख के शीर्षक का एक मुख्य उद्देश्य ये बताना भी है कि जितने भी क्रांतिकारी हुए जिन्हें फांसी मिली असल में सच ये है कि अंग्रेजी सरकार की क्या ज़ुर्रत कि वो भारत के बेटों को फांसी दे पाती आज़ादी के लिए जितने भी क्रांतिकारी फांसी पर चढ़े वो अपने काम को अंजाम देने के बाद स्वेछा से अपने प्राण आज़ादी के लिए कुर्बान कर गए। आज शहीद-ए -आज़म उधम सिंह की 77वीं बरसी पर पूरा देश इस वीर सपूत को शत- शत नमन कर रहा है।